दुःख के वेश में आया है…सुख !
जो भी हमारे साथ होता है वह हमारे पूर्व कर्मों का फल है। कुदरत का कानून (law of karma) सुनिश्चित करता हैं की हमारा किया हमारें आगे अवश्य आये और नियति बिना चूकें उन लोगों को…. उन परिस्थितियों को हमारे आगे ला के खड़ा कर देती हैं जिनके साथ कुछ पिछला बकाया हैं और बकाया भी सिर्फ आज का नहीं कई कई जन्मों का क्यों की जब तक ऋण चुकता न हो जाये हिसाब चला करते हैं!
होनी हो के रहती हैं कोई शक्ति इसे रोक नहीं सकती। नियति मेरा संसाधन (resource) हैं। मेरे संस्कार मेरा कच्चा माल (raw material) हैं और मेरा जीवन मेरी फैक्ट्री (factory) हैं। मेरी इच्छा शक्ति मेरा ऊर्जा केंद्र हैं।
मैं अपने कच्चे माल से, अपने उपलब्ध संसाधनों के साथ अपनी ऊर्जा शक्ति से मेरी इस फैक्ट्री में जो उत्पाद बनेगा वह मेरा भाग्य हैं।
इस सारी प्रक्रिया में कच्चा मेरा, ऊर्जा स्त्रोत मेरा, फैक्ट्री मेरी, हाँ, संसाधन कुछ सीमित हैं पर संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग कर सकने वाला मस्तिष्क भी मेरा !
कितना कुछ तो मेरे ही हाथ में हैं।
सहमत हैं आप….? हम में से बहुत से लोगों का जवाब होगा – नहीं !
नियति ने मुझे दिया ही क्या हैं सर पे तपता सूरज और पैरों तले जलती जमीन ! में तो बस लोगों का हरा भरा लहलहाता जीवन देख कर अपने कर्मों को कोस सकता हूँ…. कितनी भी इच्छा शक्ति हो पर अपने हिस्से की बंजर भूमि पर हरियाली तो नहीं ला सकता। हाँ ठीक कह रहे है आप। आपको नियति ने दी ही नहीं हैं उर्वर जमीन, दी ही नहीं है वैसी जलवायु वैसा अनुकूल मौसम जो कुछ उगा सकें।
पर थोड़ा गौर कीजिये की आपको मिला है तेज तपता सूरज ! बहुत तीखी हैं उसकी किरणे नहीं पनपने देगा वो किसी अंकुर को। पर साध सकते हैं आप उस प्रचंडता को !
सोलर प्लांट लगा के सोख लीजिये उस तेज को और देखिये कैसा असीम ऊर्जा का भंडार बन जाता है वो, आपकी मर्जी की प्रतीक्षा में कि कैसे और कहाँ उपयोग करना चाहेगे आप उसका ! पूरी तरह आपकी मर्जी ! सिर्फ और सिर्फ आपका निर्णय ! अब वो जलता तेज पुंज समस्या नहीं हैं संसाधन है आपका !
हमारी समस्या ये नहीं हैं कि हमें नियति ने कुछ नहीं दिया, समस्या ये है की हमें वो नहीं दिया जो हमारे आस पास वालों को दिया हैं। और हम अपनी सोच की सीमाएं सीमित कर लेते हैं , समेट लेते हैं अपनी आशाओं -अपेक्षाओं के दायरें को सिर्फ वहीँ तक जितना और जैसा हमने देखा हैं। बस वैसा हो हमारा जीवन तो हम नार्मल (normal ) और अगर वैसा नहीं हो पाया जीवन तो इसका मतलब हम तो अधूरे रह गए…. एक बेचारगी ओढ़ लेते हैं या कड़वाहट से भर जाते हैं और नहीं देख पाते की कितना अनोखा उपहार दिया है नियति ने हमें, कैसा सुन्दर संवार सकते हैं हम अपने जीवन को उस से…. कैसा कमाल का भाग्य रच सकते हैं ! और सबसे बड़ी बात कितना शानदार उदहारण बन सकते है कई लोगों के लिए जिनकी सोच के दायरें को विस्तार दे देंगे हमारें फैसलें ।
जीवन साथी के व्यवहार से आहत हो आप या ऑफिस में गला काट स्पर्धा थका रहीं हैं, बड़े होते बच्चे मनमर्जी करने लगे हैं या सेहत साथ नहीं दे रही हैं…. आवश्यकता हैं बस सोच की दिशा बदल के देखिये। “कैसा होता आया है” के चश्मे को उतारिये और अपने विवेक की दृष्टि से देखिये। हर समस्या को सुलझाने की सबसे पहले सीढ़ी हैं उस व्यक्ति को उस स्तिथि को स्वीकार करना। स्वीकार करने का अर्थ ये नहीं की बच्चों को अपना नुकसान करते हुए देखते रहेंगे आप, ऑफिस स्टाफ को अपना शोषण करने देंगे या किसी के बेजा दबाव के आगे समर्पण कर देना हैं। पर अगर यही सोचते रहें की खुद को उनसे कैसे बचाना हैं ये सोचेंगे तो संघर्ष ही (conflict ) उत्पन्न होगा।
स्वीकार करने का अर्थ है ये समझना की वे जिस परिस्थिति में है वहां उनके लिए वैसा सोचना स्वाभाविक हैं। वे आपको परेशान करने के लिए कुछ नहीं कर रहें बल्कि वे तो स्वयम जूझ रहे हैं। मैं कैसे उनकी सहायता कर सकता/ सकती हूँ , ये सोचिये !
पेड़ पौधों के बारे में हम सभी जानते है की वे हमें ऑक्सीजन देते हैं पर क्या ऑक्सीजन वो सिर्फ इसलिए देते हैं की हम जीवित रह सकें ?
खुद उनका जीवन भी तभी सम्भव है जब वो ऑक्सीजन देंगे बहुत बड़ी सीख है इसमें ! “देना” उपकार नहीं होता “देना” पोषण (nourishment ) होता है ! स्वयं का पोषण !
औरों को “दे कर” उनके लिए कुछ कर के हम अपनी ज़िन्दगी में “जान” डालते हैं और जब हम ये नहीं कर रहे होते हैं तो मुरझाये – बेजान मन को ढो रहें होते हैं बस।
औरो को सहारा देने के लिए हाथ बढा के देखिये साथी खुद ब खुद बनते जायेंगे। अपने अपनों को अपनाइये… उन्हें अपनापन दे कर आप जीत जायेंगे। आप जीतेंगे उनका भरोसा कि आप उन्हें “समझते” हैं ! अब वो कह पाएंगे आपसे अपने मन की और ये यकीन की आप वैसा महसूस कर सकते है जैसा उनको महसूस होता हैं तो अब आपकी राय मायने रखेगी उनके लिए !
अब है डोर आपके हाथ में ! वह प्रचंड ऊर्जा जो जला रही थी आपको… अब देख रही हैं आपकी ओर की आप दिशा दें उसे।
याद रखिये सृष्टि के मूल नियम हम सब लिए एक जैसे ही हैं। जो देता हैं वही पनपता हैं !
देना हैं बस प्यार और अपनापन और इन सबसे पहले स्वीकृति। स्वीकार कीजिये उन्हें उनकी सारी उलझनों , सीमाओं के साथ। फिर सुलझाइये… जरूर सुलझ जाएगी ज़िन्दगी 🙂