जन्म मुहूर्त निर्धारण – सफल जीवन की गारण्टी या कार्मिक दखलंदाज़ी?
जन्म के समय ग्रह-नक्षत्र तय करते है कैसा होगा भाग्य तो क्यों न ग्रह-नक्षत्रों को हम तय कर लें। जब होंगे ग्रह-नक्षत्र अनुकूल तभी हो हमारे बच्चे का जन्म तो जीवन के सुखमय होने की गारण्टी मिल जाए।
कुछ ऐसी ही भावना, ऐसी ही कामना लिए माता-पिता जा पहुँचते हैं ज्योतिषी के पास, जानने को वह दिन, वह घड़ी जो आश्वस्त कर दे की सफलता ही सफलता मिलेगी बालक को। ‘कष्ट छू भी न पाए कुछ ऐसा मुहूर्त बता दीजिये’ माँ कहेगी, ‘रुपये पैसे की बरसात हो जीवन भर ऐसा समय बताइये जन्म का’- संभवतः पिता का मन चाहेगा। ‘सब कुछ कहाँ किसी को मिलता हैं फिर भी देखतें हैं’ कहते हुए ज्योतिषी गणना करने में व्यस्त हो जायेंगे और निकाल लाएंगे वह अनुकूल समय जो पूर्ण कष्टमुक्त न सही पर अपेक्षाकृत सरल जीवन की ओर इशारा करता हों। हालाँकि जन्म के समय का चुनाव करने के लिए आपको अधिक समय अवधि तो नहीं मिल पाती पर फिर भी उन 4-5 दिनों के या एक-आध हफ्ते के हेर-फेर से जो भी सर्वोत्तम चुना जा सकता था वह चुन लिया आपने। अब मिला जाता है डॉक्टर से और फरमाइश की जाती है उसी मुहूर्त में सिजेरियन द्वारा बच्चे के जन्म की। यदि भाग्य ने साथ दिया तो ये काम भी हो जायेगा। अब आप प्रसन्न हैं आपने पहली बाज़ी जीत ली। विवश कर दिया ग्रह-नक्षत्रों को की अनुकूल रहें वे आपके लाडले के लिए।
ऐसा करना सही था या नहीं और क्या वाकई सफलता ही चुनी हैं आपने की सफलता के भ्रम में कुछ और ही चुन लिया हैं?
इस विषय पर हमें दो तरह के मत जानने को मिलते हैं –
एक, जो कहता हैं की ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता सब कुछ पूर्व निर्धारित हैं। यहाँ तक की आपका ज्योतिषी के पास जाना, उनसे मुहूर्त निकलवाना और बताये गए समय पर शिशु का जन्म होना यह सब इसलिए हुआ क्यों की यही होना था।
दूसरा मत जिसके अनुसार आप सामान्य प्रसव के समय की प्रतीक्षा न कर के किसी चुने गए समय पर शिशु का जन्म करवा सकते हैं पर यह उस बालक की कार्मिक यात्रा में दखल देना हैं।यह पाप हैं क्यों की ऐसा कर के आप उसकी कार्मिक यात्रा को बाधित करते हैं।
पहले प्रथम मत का विश्लेषण करते हैं, जो कहता है सब कुछ पहले से निश्चित हैं।
यदि सब कुछ पहले से निश्चित हैं तो फिर इच्छाशक्ति (Willpower) का स्थान ही कहाँ रह गया? यदि सब कुछ पूर्व निर्धारित हैं तो आत्महत्या, भ्रूणहत्या, हत्या ये सब पाप क्यों हैं ? सब कुछ निर्धारित था यानि किसी व्यक्ति का पापी होना भी निर्धारित था वह तो विवश है पाप करने के लिए ! उसके पास और कोई विकल्प ही नहीं।
जब हम कहते हैं “सब कुछ” तो हमें इस शब्द “सब-कुछ” की सीमायें भी जान लेनी चाहिए। वे सभी परिस्थितियां जो हमारे सामने आनी है, वे पूर्व-निर्धारित हैं और अटल भी। पर उन परिस्थितियों में हम कैसे प्रतिक्रियां देंगे यह पूरी तरह से हमारे संस्कारों, विवेक और इच्छाशक्ति पर निर्भर करता हैं। यदि इच्छाशक्ति न हो तो हम कभी भी विकसित हो ही नहीं सकते। कभी कुछ सीख ही नहीं सकते। हम बस गलतियों को दोहराते चले जायेंगे।यह इच्छाशक्ति ही हैं जिसके कारण हम अपनी सोच को और स्वयं के व्यक्तित्व को बदल सकते हैं।
हाँ जन्म का समय भी पूर्व-निर्धारित ही होता हैं। एक आत्मा न जाने कितने कितने समय प्रतीक्षा करती हैं की आकाश में ग्रह-नक्षत्र उस निश्चित स्थिति में आये ताकि उसे अपने कर्मों और भावी योजना के अनुरूप जीवन खाका (life frame) मिल सकें।
और तभी जाग जाता हैं माँ-पिता का प्यार और बच्चे के सुख और मिठास भरे जीवन की चाह में वे चुन लेते हैं कोई और समय जो उस आत्मा ने अपने लिए नहीं चुना होता।
इसे कुछ यूँ समझिये, एक बच्चे ने प्री स्कूल की नर्सरी क्लास पार कर ली हैं और अब वह प्राथमिक स्कूल में जायेगा जहाँ उसे प्री-स्कूल की तरह खेल-खिलौनों, मौज-मस्ती वाले दिन नहीं मिलेंगे। अब औपचारिक शिक्षण होगा, अनुशाशन होगा। तो उसके माता पिता निर्णय लेते हैं कि क्यों न बच्चे को नर्सरी क्लास में ही रहने दिया जाये। बढ़िया रहेगा ना…. न कोई होमवर्क मिलेगा, न परीक्षा होगी, कोई तनाव नहीं, कितना सरल रहेगा जीवन ! क्या कहेंगे आप ऐसे माता पिता को? क्या बच्चे को तनाव मुक्त रखने के लिए उसकी प्रगति रोक देना समझदारी हैं ? बिलकुल नहीं !
हाँ हम चाहते हैं की हमारे बच्चे तनाव मुक्त रहें पर तनाव मुक्त रखने का यह सही तरीका नहीं हैं यह भी हम जानते हैं। सही तरीका यह हैं की हम उन्हें सिखाते हैं, समझाते हैं कि जीवन की चुनौतियों का सामना कैसे करना हैं।उनकी हर छोटी-बड़ी मुश्किल में हम उनका सहारा बनते हैं पर साथ ही यह भी सत्य हैं कि हम एक दिन उन्हें पूरी तरह आत्मनिर्भर देखना चाहते हैं।हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे बड़े हो कर कुशलता से अपने जीवन के हर पक्ष को सम्हाल लें।
और ये तभी संभव हैं जब हम उन्हें जीवन के अनुभव लेने देंगें।और हम ऐसा ही करते भी हैं। उन्हें प्राथमिक स्कूल, फिर हाई स्कूल, फिर कॉलेज, फिर और उच्च शिक्षा की लिए घर से दूर और आवश्यकता पड़े तो शहर से दूर भी भेजते हैं। हमारा प्रेम उनकी प्रगति चाहता हैं। हाँ वे स्वयं को और हमारे दिए नैतिक मूल्यों को सुरक्षित रखें इसका प्रयास हम अवश्य करते हैं।
जन्म समय के परिवर्तन से कैसे फर्क पड़ता है आत्मा को?
जी पी एस (GPS) सिस्टम के बारे में आप जानते होंगे। यदि आपको कहीं जाना हो जहां के मार्ग से आप पूर्ण परिचित नहीं हैं तो उस जगह का पता आप इसे बताते हैं। GPS उपलब्ध मार्गों में से सबसे छोटा और उपयुक्त मार्ग आपके लिए चुनता है और इस से आपको मार्ग के दिशा निर्देश मिलने लगते हैं।अब यदि आपने इसके द्वारा बताये मार्ग में कोई मोड़ छोड़ दिया तो क्या होता है ?
या तो GPS आपको वह वैकल्पिक मार्ग बताएगा जो की लम्बा होगा।
या वह उसी मार्ग पर आपको तब तक आगे ले जाता रहेगा जब तक की आपको वापस सही मार्ग पर आने के लिए यू -टर्न (U-Turn ) न मिल जाये और फिर पुनः आपको उसी जगह ले कर आएगा जहाँ से आपको वो सही मोड़ मुड़ना था।
इन दोनों ही स्थितियों में आपका समय, ऊर्जा और ईंधन व्यर्थ हुए। U-turn मिलने तक जो आप चले वो लम्बी सड़क भले ही कितनी भी बढ़िया थी पर आपको आपके गंतव्य से दूर ही ले जा रही थी और आपके नियत समय पर अपनी मंज़िल पर न पहुँचने का कारण भी बन रही थी और कुछ बहुत महत्वपूर्ण जो आपको सही समय पर वहां पहुँच कर करना था, अब आप नहीं कर पाए।
ऐसा ही हो सकता हैं आत्मा की यात्रा के साथ भी। किन्ही घटनाओं का साक्षी होना था उसे, कुछ सबक (lessons) थे जो वहां से सीखने थे, जिनके लिए न जाने कितने समय प्रतीक्षा की होगी उसने और वह चूक जाएगी। यह उसकी कार्मिक यात्रा में बाधा थी जो भले ही आपने स्नेहवश उत्पन्न की – पर की तो सहीं !
धरती पर उसे अपना पाठ्यक्रम (curriculam) तो उसे पूरा करना ही होगा जो इस जन्म में रह जायेगा उसके लिए पुनः आना होगा U -Turn ले कर। एक क्लास जो आपका बच्चा इस वर्ष पास कर लेता उसमे आपके अति स्नेह ने उसे फेल करवा दिया। ‘छठी कक्षा में पहुंचे बच्चे को दिक्कत न हो ये सोच कर पांचवीं में ही रख लेना’ जैसा ही हैं बच्चे के जन्म का समय बदलना।
समझिये कि इस धरती पर आपके बच्चे का जीवन दरअसल एक आत्मा की अनंत यात्रा का एक भाग हैं। जो भी कष्ट, चुनौतियां उसके जीवन में आने वाली हैं वे सब उस आत्मा के पाठ्यक्रम का हिस्सा हैं और आने वाली आत्मा ने यह पाठ्क्रम स्वयं चुना हैं। उसे करना हैं उन सब मुश्किलों का सामना, उसे उतारने हैं बहुत सी अन्य आत्माओं के क़र्ज़ और ये सब करते हुए सीखने हैं कुछ सबक (lessons). कुछ पुराने अनुचित संस्कार हैं जो बदलने हैं, कुछ नए हैं जो सीखने हैं। बतौर माता-पिता हमारी भूमिका हैं मार्गदर्शक की, सही और गलत का फर्क समझाने की, विपरीत परिस्थितियों में अपना आत्मबल बनाये ऱखना सीखाने की, और बिना शर्त प्रेम करने की। कोई अधिकार नहीं हैं हमें की हम प्रेम के नाम पर उस आत्मा की प्रगति में बाधक बनें।
आने दीजिये उसे ‘उस दिन’ ‘उस क्षण’ जो उसने अपने लिए चुना हैं। जिस “कर्म के कानून” (लॉ ऑफ़ कर्मा) ने आपको आपके बच्चे की ‘सही माँ’ के तौर पर चुना हैं, ‘सही पिता’ के तौर पर चुना हैं उसी ने उसके आपके पास आने के “सही समय” को भी चुना है। विश्वास रखिये उस पर और अपने बच्चे को अपना प्रेम भरा साथ दीजिये।