मैं कौन हूँ – एक मुलाकात स्वयं से…!
अगर आपसे कहा जाये की अपना परिचय दीजिये तो क्या कहेंगे आप?
आपका जवाब कुछ ऐसा होगा,” मै एक डॉक्टर हूँ ” या “मै एक इंजीनियर हूँ” या “शिक्षक हूँ” या वकील हूँ, आदि। तो क्या यह आपका वास्तविक परिचय हैं? आप जन्म से ही तो डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक या वकील नहीं थे। ये आपका व्यवसाय है, आरम्भ से ही तो नहीं था ये आपके साथ। इस से पहले भी कुछ तो परिचय था आपका।
अब आप कह सकते है कि इस से पहले मैं विद्यार्थी था पर ये परिचय भी न तो जन्म से था और न ही आखिर तक रहेगा। अब आप अपना परिचय अपने माता पिता से जोड़ेंगे बताएँगे की आप फलां परिवार, जाति और धर्म के हैं किन्तु यह परिचय तो आपको जन्म के साथ “मिला” हैं। इस संसार में कितने ही ऐसे लोग हैं जो अनाथ हैं और नहीं जानते की उनके माता पिता कौन थे.. नहीं जानते की किस जाति, धर्म के है वो। तो क्या “परिचयहीन ” है वो??
पर जो भी अवस्तिथ (existed ) हैं उसकी कोई न कोई पहचान कोई परिचय तो होता ही हैं।
तो कैसे पता चले मेरा वास्तविक परिचय? परिचय जो हर परिस्थिति में… जीवन के हर पड़ाव पर “मेरा” रहे।
सारी उलझन इसलिए हैं कि हम अपने इस “मैं” को अपने इस शरीर से अलग कर के नहीं देख पाते। यह शरीर किसी परिवार में जन्म लेता हैं, किसी धर्म का अनुसरण करता हैं, किसी व्यवसाय को अपनाता हैं। और हम इन सब को मिला कर अपना परिचय बुनने लगते हैं।
अगर यह शरीर ही “मैं” हैं तो हम ऐसा क्यों कहते हैं कि, “मेरा सिरदर्द कर रहा हैं ” या “मेरे ह्रदय में ब्लॉकेज (blockage) हैं” हम ऐसा तो कभी नहीं कहते कि “मैं दर्द कर रहा हूँ” या “मैं ब्लॉकेज हो गया हूँ” हमेशा हमने कहा की “मेरा शरीर” न की “मैं शरीर” तो अगर ये शरीर “मेरा” है यानि “मैं” इस शरीर से अलग कुछ हूँ !
जैसे मेरा मकान, मेरी गाड़ी, मेरी आँखे… मेरे पैर… मेरा ह्रदय, मेरा मन।
ये सब मेरा है.. पर “मैं” ये नहीं हूँ !
इस शरीर के साथ “मैं” तभी तक जुड़ा हूँ जब तक यह शरीर जीवित हैं। एक डॉक्टर अपने स्टाफ से कह सकता है की “श्रीमान एक्स” (Mr. X ) को ऑपरेशन थिएटर में ले जाओ और अगर, Mr. X की ऑपरेशन टेबल पर ही मृत्यु हो जाती है तो अब अगला निर्देश क्या होगा? डॉक्टर कहेगा “बॉडी” (body) को ऑपरेशन थिएटर से बाहर ले जाओ। क्या हो गया !! अचानक से Mr.X अब “Mr.X” न रह कर “body” कैसे हो गए !! कुछ ही देर में रिश्तेदार कहने लगेंगे body उठा लो… अंतिम संस्कार के लिए ले चलो कोई ये नहीं कहेगा Mr.X को अंतिम संस्कार के लिए ले चलो.
यानि “वो जिसकी वजह से उस शरीर कि एक पहचान थी….” “उसने” शरीर त्याग दिया !
मेरे शरीर की पहचान मुझसे तभी तक है जब तक “मैं” इस शरीर में हूँ। जैसे ही “मैने” शरीर त्यागा ये सिर्फ शरीर (body) रह गया। अगर “मैं” शरीर त्यागता हूँ तो इसका अर्थ हुआ की कभी “मैने” इस शरीर को धारण भी किया होगा। एक माँ के गर्भ में गर्भधारण (conception) के बाद शिशु का या कहिये की शिशु के शरीर का निर्माण होता है।और यही वो समय है कि जब इस “मै” का उस शरीर में प्रवेश होता हैं। यह “मैं” वह “जीवन ऊर्जा” हैं जो यह सुनिश्चित करती हैं की उस भ्रूण के ह्रदय में धड़कन शुरू हो… की उसके अंग बनें और अपने भावी कार्यो के अनुरूप विकसित हों। यदि ये “जीवन ऊर्जा” उस भ्रूण में प्रवेश ना करे तो गर्भधारण के उपरांत भी वह भ्रूण विकसित नहीं होगा और गर्भपात की स्थिति आ जाएगी।
माँ के गर्भ से ही शरीर का निर्माण तथा विकास सुनिश्चित करने वाली इसी जीवन ऊर्जा का नाम हैं “आत्मा”
“आत्मा” “ऊर्जा” है। और विज्ञानं ने हमें भली भांति समझाया है की ऊर्जा न कभी उत्पन्न होती है और न ही नष्ट होती हैं, ऊर्जा सिर्फ और सिर्फ “रूपांतरित” हो सकती है एक से दूसरे रूप में। यानि हम कह सकते है की ऊर्जा “शाश्वत” है… और ठीक इसी तरह शाश्वत हैं… आत्मा भी ! आत्मा न कभी जन्म लेती हैं न कभी मरती हैं। वह सिर्फ एक से दूसरा शरीर बदलती हैं। और यह यात्रा इसी प्रकार चलती रहती हैं।
कैसी हैं ये यात्रा? कहाँ से कहाँ तक की यात्रा हैं ये? और “मैं” जो की एक “आत्मा” हूँ क्या इस यात्रा में “मैं ” कोई निर्णय ले सकता हूँ?
और हमारा सबसे बड़ा प्रश्न, “मैं” कैसे हुआ अपना भाग्य रचयिता???
ये और ऐसे ही की अन्य कई प्रश्नों के उत्तर अगले आलेख में… 🙂
बहुत, बहुत महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए धन्यवाद 🙏